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एक ख़्वाब की दूरी पर | शाही शायरी
ek KHwab ki duri par

नज़्म

एक ख़्वाब की दूरी पर

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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इक ख़्वाहिश थी
कभी ऐसा हो

कभी ऐसा हो कि अंधेरे में
(जब दिल वहशत करता हो बहुत

जब ग़म शिद्दत करता हो बहुत)
कोई तीर चले

कोई तीर चले जो तराज़ू हो मिरे सीने में
इक ख़्वाहिश थी

कभी ऐसा हो
कभी ऐसा हो कि अंधेरे में

(जब नींदें कम होती हों बहुत
जब आँखें नम होती हों बहुत)

सर-ए-आईना कोई शम्अ जले
कोई शम्अ जले और बुझ जाए मगर अक्स रहे आईने में

इक ख़्वाहिश थी
वो ख़्वाहिश पूरी हो भी चुकी

दिल जैसे देरीना दुश्मन की साज़िश पूरी हो भी चुकी
और अब यूँ है

जीने और जीते रहने के बीच एक ख़्वाब की
दूरी है

वो दूरी ख़त्म नहीं होती
और ये दूरी सब ख़्वाब देखने वालों की मजबूरी है

मजबूरी ख़त्म नहीं होती