सूरज ढलता है
और बम गिरता है
और बम गिरते हैं
सूरज ढलने से
सूरज चढ़ने तक
चढ़े हुए दिन में भी इधर उधर
बम गिरते रहते हैं
लेकिन कोई चीख़ सुनाई नहीं देती
पहले देती थी
अब कोई नहीं रोता
गहरे गहरे गढ़े हैं और गढ़ों
में
गलता हुआ इंसानी मास है बचा-खुचा
और चारों जानिब
ईंटें पत्थर सरिया टूटे हुए
दरवाज़े खिड़कियाँ कुत्ता बिल्ली चील
और डरे डरे कुछ लोग
उधर उधर से झाँकते हैं
उधर उधर छुप जाते हैं
बम गिरता है
लेकिन एक खंडर में सिगरेट जलता है
बुझता है
जलता है
डर ग़ुस्से में ढलता है
रॉकेट चलता है
रॉकेट चलता है
दुनिया चीख़ती है
और बम गिरता है
तो
किसी को सुनाई नहीं देता
किसी को दिखाई नहीं देता
नज़्म
एक इंतिहाई ग़ैर-जज़्बाती रिपोर्ट
जावेद अनवर