बस्तियाँ हों कैसी भी पस्तियाँ हों जैसी भी
हर तरह की ज़ुल्मत को रौशनी कहा जाए
ख़ाक डालें मंज़िल पर भूल जाएँ साहिल को
रुख़ जिधर हो पानी का उस तरफ़ बहा जाए
मुल्क बेच डालें या आबरू रखें गिरवी
जैसा हुक्म-ए-हाकिम हो उस तरह किया जाए
शोर में सदाओं के अजनबी हवाओं के
कौन सुनने वाला है? किस से अब कहा जाए!
गुफ़्तुगू पे पहरे हैं हर तरफ़ कटहरे हैं
रास्ते मुअय्यन हैं हर क़दम पे लिक्खा है
किस जगह पे रुकना है! किस तरफ़ चला जाए
दिल की बात कहने का इक यही तरीक़ा है
छुप के सारी दुनिया से अब घरों के कोनों में
आप ही सुना जाए आप ही कहा जाए
नज़्म
एक और मशवरा
अमजद इस्लाम अमजद