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मुंतज़र साया-ए-मुंतज़िर आँखें | शाही शायरी
muntazar saya-e-muntazir aankhen

नज़्म

मुंतज़र साया-ए-मुंतज़िर आँखें

ज़हीर सिद्दीक़ी

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ग़ैरत है कि हया
नाम उस का न लिया जिस को पुकारा उस ने

उस गई रात के सन्नाटे में कौन आया है
बंद दरवाज़े के मजस में तो सीता ही है

और बाहर
कोई रावन तो नहीं

कौन है कौन की सहमी सी सदा
वो भी कुछ कह न सका मैं के सिवा

दस्तकें राम के मख़्सूस ज़बाँ रखती हैं
गोश-ए-सीता के लिए मुज़्दा-ए-जाँ रखती हैं

बल्ब रौशन हुआ और चाप क़दम की उभरी
चूड़ियाँ बोल उठीं

उँगलियाँ काठ की मिज़राब पे फिर रेंग गईं
दोनों पट ख़्वाब से चौंके तो मअन चीख़ उठे

एक हंगामा हुआ रात का अफ़्सूँ टूटा
मुंतज़र साया-ए-ख़जालत के धुआँ से उभरा

रात काफ़ी हुई तुम जाग रही हो अब तक
आज फिर देर हुई

असल में आज अजब बात हुई
ठीक है ठीक कोई बात नहीं

मुंतज़िर शाख़ जो लचकी तो कई फूल झड़े
आप मुँह हाथ तो धो लें पहले

और मिंटों में मैं साल को ज़रा गर्म करूँ
प्यार की आग भी रौशन हुई स्टोव के साथ

दश्त-ए-तन्हाई के इफ़रीत बहुत दूर हुए
वसवसे जितने थे दिल में सभी काफ़ूर हुए

हरकत और हरारत में मगन दोनों बदन
ये किराया का मकाँ है कि मोहब्बत का चमन

एक एक लुक़्मा पे होती हैं निगाहें दो-चार
एक एक जुरए में महलूल तबस्सुम की बहार

मुज़्तरिब दिल में मुनव्वर हैं मसर्रत के चराग़
जानी-पहचानी सी ख़ुश्बू में है मसहूर-ए-दिमाग़

आँखों आँखों में सियह रात कटेगी अब तो
होंट से होंट की सौग़ात बटेगी अब तो