सब्ज़ मद्धम रौशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक
बाज़ुओं के सख़्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन
सिलवटें मल्बूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ
गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलाएम उँगलियों की छेड़-छाड़
सुर्ख़ होंटों पर शरारत के किसी लम्हे का अक्स
रेशमीं बाँहों में चूड़ी की कभी मद्धम खनक
शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी इक सदा
काँपते होंटों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ इक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जाएँ ठहर जाएँ ज़रा!
नज़्म
एक्सटेसी
परवीन शाकिर