ज़माने बह गए कितने
वही आँगन जो वुसअ'त में मुझे दुनिया लगा करता था
वो दो जस्त निकला
जिस जगह दालान था
अब उस जगह हमवार मिट्टी मुँह चिढ़ाती है
इधर हमवार मिट्टी से उधर
वो ढेरियाँ मिट्टी की कब से मुंतज़िर हैं
कोई मिलने ही नहीं आता
यहीं थे वो
जो अब मिट्टी हैं
जिन के ख़ाल-ओ-ख़द पूरे बदन पर ज़ोर दे कर याद करता
हूँ
यहीं थे वो
मिरे बक्से में यादों और धागों जुड़ी ऐनक तो रक्खी
है
मगर दादा की
नीली झिलमिलाते पानियों जैसी दो आँखें बह गई हैं
और दादी की सुनाई सब कथाएँ
ख़ाक अंदर रह गई हैं
वक़्त अब भी बह रहा है
मेरी आँखों
और क़ब्रों से
वहाँ आँगन के सूखे पेड़ तक
सारे में इतनी ख़ाक उड़ती है
दिखाई कुछ नहीं देता
नज़्म
आबाई मकानों पर सितारा
ज़ीशान हैदर