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ए'तिराफ़ | शाही शायरी
etiraf

नज़्म

ए'तिराफ़

शिफ़ा कजगावन्वी

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कभी ऐसा भी होता है
सवालों की कोई इक भीड़

मुझ को घेर लेती है
तो ये महसूस होता है

कि मैं पाबंदियों के इस क़फ़स को
तोड़ कर बाहर निकल आऊँ

मैं इस दुनिया को देखूँ
और बहुत नज़दीक से देखूँ

ज़ेहन में kulbulaahaT उन
सवालों के भी हल ढूँडूँ

जो कुछ मेरे हैं और कुछ
दूसरों ने मुझ से पूछे है

किसी को जुस्तुजू है उस वजूद-ए-पाक को जाने
तज़ब्ज़ुब में कोई है उस को माने भी तो क्यूँ माने

अगर वो है तो इस दुनिया में
बद-आमालियाँ क्यूँ हैं

अगर वो है तो इंसानों में
ये बद-कारियाँ क्यूँ हैं

यहाँ बचपन है दहशत में
जवानी भी है ख़तरे में

है कुछ माहौल भी ऐसा
कि पानी भी है ख़तरे में

अगर वो है तो फिर क्यूँ
ख़ामुशी की है रिदा ओढ़े

अगर वो है तो फिर हालात की
गुत्थी को सुलझाए

न जाने कितने ऐसे ही
सवालों ने किए हमले

तो मैं ने ये तजस्सुस
अक़्ल के मीज़ान में तोले

मुझे लगने लगा ये कैसे बेहिस लोग हैं
जिन को नहिं एहसास ने'मत का

न बहरों के ख़ज़ानों का
न ऊँची उन चटानों का

न कोहसारों की अज़्मत का
न उस गेती की वुसअ'त का

परिंदों के तरानों का
न जंगल का मकानों का

न पैदाइश न रेहलत का
मोहब्बत और शफ़क़त का

कि दुनिया के हर इक ज़र्रे में
उस का नूर पिन्हाँ है

अँधेरा हो जहाँ वो
नूर की सूरत नुमायाँ है

ख़ुशी और ग़म हमारे
इम्तिहानों की ही शक्लें हैं

कि हम उस के दिए आईन को
कितना समझते हैं

हमारे सब्र दुश्वारी की
चोट चोट सहते हैं

कहाँ हम लड़खड़ाते हैं
कहाँ से बच निकलते हैं

उसे पहचानना आसान नहीं लेकिन
वजूद-ए-हक़ नुमायाँ है

अज़ल से आज तक ये जा-ब-जा
लम्हा-ब-लम्हा पै-ब-पै

महसूस होता है कि वो
शह-ए-रग से है नज़दीक

और आ'माल पर नज़रें
उसे है फ़िक्र ख़िल्क़त की

और इंसाफ़-ओ-अदालत की
वो हादी है हर इक शय का

मुहाफ़िज़ है हर इक शय का
कि जब इन ज़लज़लों से

अपनी धरती काँप उठती थी
जहाँ लाशें ही लाशें थीं

वहाँ चौबीस घंटों तक
वो एक नन्ही सी जाँ को

ईंट और पत्थर के मलबे में
अता करता है साँसें

और उस को ज़िंदा रखता है
तो सर सज्दे में झुकते है

अक़ीदा और भी मज़बूत होता है