मुझे तू मुज़्दा-ए-कैफ़िय्यत-ए-दवामी दे
मिरे ख़ुदा मुझे एज़ाज़-ए-ना-तमामी दे
मैं तेरे चश्मा-ए-रहमत से काम काम रहूँ
कभी कभी मुझे एहसास-ए-तिश्ना-कामी दे
मुझे किसी भी मुअज़्ज़ज़ का हम-रिकाब न कर
मैं ख़ुद कमाऊँ जिसे बस वो नेक-नामी दे
वो लोग जो कई सदियों से हैं नशेब-नशीं
बुलंद हूँ तो मुझे भी बुलंद-बामी दे
तिरी ज़मीन ये तेरे चमन रहें आबाद
जो दश्त-ए-दिल है उसे भी तू लाला-फ़ामी दे
बड़ा सुरूर सही तुझ से हम-कलामी में
बस एक बार मगर ज़ौक़-ए-ख़ुद-कलामी दे
मैं दोस्तों की तरह ख़ाक उड़ा नहीं सकता
मैं गर्द-ए-राह सही मुझ को नर्म-गामी दे
अगर गिरूँ तो कुछ इस तरह सर बुलंद गिरूँ
कि मार कर मिरा दुश्मन मुझे सलामी दे
नज़्म
दुआ
अहमद नदीम क़ासमी