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दोराहा | शाही शायरी
doraha

नज़्म

दोराहा

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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जाग ऐ नर्म-निगाही के पुर-असरार सुकूत
आज बीमार पे ये रात बहुत भारी है

जो ख़ुद अपने ही सलासिल में गिरफ़्तार रहे
उन ख़ुदाओं से मिरे ग़म की दवा क्या होगी

सोचते सोचते थक जाएँगे नीले सागर
जागते जागते सो जाएगा मद्धम आकाश

इस छलकती हुई शबनम का ज़रा सा क़तरा
किसी मासूम से रुख़्सार पे जम जाएगा

एक तारा नज़र आएगा किसी चिलमन में
एक आँसू किसी बिस्तर पे बिखर जाएगा

हाँ मगर तेरा ये बीमार किधर जाएगा
मैं ने इक नज़्म में लिक्खा था कि ऐ रूह-ए-वफ़ा

चारासाज़ी तिरे नाख़ुन की रहीन-मिन्नत
ग़म-गुसारी तिरी पलकों की रिवायात में है

एक छोटी ही सी उम्मीद-ए-तरब-ज़ार सही
एक जुगनू का उजाला मिरी बरसात में है

लज़्ज़त-ए-आरिज़-ओ-लब साअत-ए-तकमील-ए-विसाल
मेरी तक़दीर में है और तिरी बात में है

दैर से, काबे से, इदराक से भी उकता कर
आज तक दिल को उजाले की तलब होती है

एक दिन आएगा जब और भी उर्यां हो कर
आदमी जीने को थोड़ी सी ज़िया माँगेगा

गीत के, फूल के, अशआर के, अफ़्सानों के
आज तक हम ने बनाए हैं खिलौने कितने

ये खिलौने भी न होते तो हमारा बचपन
सोचता हूँ कि गुज़रता तो गुज़रता कैसे

आदमी ज़ीस्त के सैलाब से लड़ते लड़ते
बीच मंजधार में आता तो उभरता कैसे

देर से रूह पे इक ख़्वाब-ए-गिराँ तारी है
आज बीमार पे ये रात बहुत भारी है

आज फिर दोश-ए-तमन्ना पे है दिल का ताबूत
जाग ऐ नर्म-निगाही के मसीहाना सुकूत

वर्ना इंसान की फ़ितरत का तलव्वुन मत पूछ
इस सिन-ओ-साल का मग़रूर लड़कपन मत पूछ

आदमी तेरी इस उफ़्ताद से बद-दिल हो कर
और दो-चार ख़ुदाओं के अलम पूजेगा

और इक रोज़ इस अंदाज़ से भी उकता कर
अपने बे-नाम ख़यालों के सनम पूजेगा