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दिल इक कुटिया दश्त किनारे | शाही शायरी
dil ek kuTiya dasht kinare

नज़्म

दिल इक कुटिया दश्त किनारे

इब्न-ए-इंशा

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दुनिया-भर से दूर ये नगरी
नगरी दुनिया-भर से निराली

अंदर अरमानों का मेला
बाहर से देखो तो ख़ाली

हम हैं इस कुटिया के जोगी
हम हैं इस नगरी के वाली

हम ने तज रक्खा है ज़माना
तुम आना तो तन्हा आना

दिल इक कुटिया दश्त किनारे
बस्ती का सा हाल नहीं है

मुखिया पीर प्रोहित प्यादे
इन सब का जंजाल नहीं है

ना बनिए न सेठ न ठाकुर
पैंठ नहीं चौपाल नहीं है

सोना रूपा चौकी मसनद
ये भी माल-मनाल नहीं है

लेकिन ये जोगी दिल वाला
ऐ गोरी कंगाल नहीं है

चाहो जो चाहत का ख़ज़ाना
तुम आना और तन्हा आना

आहू माँगे बन का रमना
भँवरा चाहे फूल की डाली

सूखे खेत की कोंपल माँगे
इक घनघोर बदरिया काली

धूप जले कहीं साया चाहें
अंधी रातें दीप दिवाली

हम क्या माँगें हम क्या चाहें
होंट सिले और झोली ख़ाली

दिल भँवरा न फूल न कोंपल
बगिया ना बगिया का माली

दिल आहू न धूप न साया
दिल की अपनी बात निराली

दिल तो किसी दर्शन का भूका
दिल तो किसी दर्शन का सवाली

नाम लिए बिन पड़ा पुकारे
किसे पुकारे दश्त किनारे

ये तो इक दुनिया को चाहें
इन को किस ने अपना जाना

और तो सब लोगों के ठिकाने
अब भटकें तो आप ही भटकें

छोड़ा दुनिया को भटकाना
गीत कबत और नज़्में ग़ज़लें

ये सब इन का माल पुराना
झूटी बातें सच्ची बातें

बीती बातें क्या दोहराना
अब तो गोरी नए सिरे से

अँधियारों में दीप जलाना
मजबूरी? कैसी मजबूरी

आना हो तो लाख बहाना
आना इस कुटिया के द्वारे

दिल इक कुटिया दश्त किनारे