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दीवार क़हक़हा | शाही शायरी
diwar qahqaha

नज़्म

दीवार क़हक़हा

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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इधर न आओ
कि ये महल अब शिकस्त-ए-शौकत की दास्ताँ है

कि ये महल अब शिकस्त-ए-अक़्दार का निशाँ है
कि ये महल अब शिकस्त-ए-अफ़्कार की फ़ुग़ाँ है

इधर न देखो
कि ये खंडर है जिन्नों का भूतों का आस्ताँ है

कि ये उमंगों की बे-बसी कि बड़ी तवील एक दास्ताँ है
कि ये है मसकन सियाह रातों का हर तरफ़ बस धुआँ धुआँ है

उधर झाँको
शिकस्ता ईंटों की इन दराज़ों में चाँदनी भी सिसक रही है

अँधेरी रातों की काली नागिन सियाहियों में चमक रही है
किरन किरन का लहू पिए है तो मस्त है और बहकर रही है

जो पहले तुम उस महल में आते
तो रंग ओ नग़मा के सैल पुर नूर से गुज़रते

तो आरज़ू की शराब में डूबते उभरते
रसीली बाँहों में मीठे सपनों की डूब कर किस सुकूँ से मरते

जो पहले उस सम्त से गुज़रते
तो आरज़ुओं के नग़मा-ए-दिल नशीं को सुनते

बहुत ही रोते और आँसुओं से कई नए ख़्वाब अपने बुनते
और एक बे-नाम कैफ़-ए-मस्ती में डूब कर अपने सर को धुनते

जो पहले उस दर्द को खटकाते
हसीं उम्मीदों के पासबाँ तुम को रंग ओ बू का पयाम देते

हरे भरे सर्व ओ तुम को परियों के शहज़ादे का नाम देते
ये बाम ओ दर हँस के तुम को परियों के शाहज़ादे का नाम देते

और अब जो आए हो क्या मिलेगा
निगार ख़ाना उजड़ चुका है वो सारी महफ़िल उख़ड़ गई है

वो निकहत-ए-आरज़ू भी दीवाना वार हर-सू भटक रही है
अमीं थी जो दर्द-ए-बेकराँ कि वो आह घुट घुट के मर चुकी है

और अब यहाँ किस को ढूँडते हो
यहाँ पे तुम चीख़ते रहोगे जवाब कोई नहीं मिलेगा

यहाँ पे ढूँढते रहोगे ये ख़्वाब कोई नहीं मिलेगा
यहाँ पे शेर ओ शराब ओ चंग ओ रुबाब कोई नहीं मिलेगा

यहाँ पे किस को बुला रहे हो
यहाँ तुम्हारी सदाओं के ख़ोल गूँज बन कर उड़ा करेंगे

वो खोखली गूँज तुम से पूछेगी आप याँ आ के क्या करेंगे
डरोगे ख़ुद अपने साए से तुम तो भूत तुम पर हँसा करेंगे

उधर न आओ
उधर न आओ यहाँ पे तुम आ के क्या करोगे

यहाँ पे भूतों का रक़्स देखोगे और फिर आप ही डरोगे
डरोगे आ काले का काले सायों का रक़्स

दीवार की दराज़ों से देख कर तुम बहुत हँसोगे
बहुत हँसोगे

ये एक दीवार-ए-क़हक़हा