EN اردو
दीवार-ए-चीन | शाही शायरी
diwar-e-chin

नज़्म

दीवार-ए-चीन

आफ़ताब इक़बाल शमीम

;

कहाँ से फैला हुआ है ये सिलसिला कहाँ तक
गुज़र गया सैल हिम्मतों का

बना के ये कोस कोस सदियों की रहगुज़र सी
पहाड़ चिल्ला चढ़ी कमानों से तीर फेंकें

तो आसमाँ गिर पड़े ज़मीं पर
रवाँ-दवाँ वक़्त के बहाओ में

एक लम्बी दराड़ जैसे पड़ी हुई है
अज़ीम दीवार सर उठाए खड़ी हुई है

झुके हुए आसमान के नीचे
जो इस सहीफ़े को अक्स-दर-अक्स बाँटता है

ये रज़मिया जो लहू की शफ़्फ़ाफ़ रौशनी से
लिखा गया है

ज़मीं पे चिंगारियाँ उड़ाते हुए वो आए
जो बाज़ुओं से बुलंदियों का ख़िराज

लेते रहे
शिकम को अनाज दे कर

मशक़्क़तें जिन की बांदियाँ थीं
लहू के नमकीन ज़ाइक़े

रक़्स करते रहते थे
जिन के होंटों के आस्ताँ पर

कड़कती आवाज़ जब्र के चाबुकों की बिजली
इन्ही पहाड़ों पे कौंदती थी

यहीं पे मेहनत के नक़्श-गर ने
लहू के पानी में संग गूँधे

सदा-ए-तीशा उठी तो कोहों से फूट निकलीं
बक़ा की नहरें

ज़मीं को उस की बुलंदियों की तरफ़ उठाया
उफ़ुक़ को बाँधा उफ़ुक़ से उस ने

क़दीम क़ुव्वत के रख़्श ने दस हज़ार ली मसाफ़तों में
फ़ना के तातारियों के लश्कर को मात दे दी

यहीं पे मेहनत के नक़्श-गर ने
सिलों को पहना दिए सलासिल

बटे हुए ख़ुदगिरफ़्त क़िलओं की बाड़ तोड़ी
इसी ने कोहों के सर पे गाढ़ा

हज़ीमतों नुसरतों का परचम
कुशूद कर के जिसे उड़ाया

कई ज़मानों के वारिसों ने
जो उड़ रहा है

नशेब को आसमाँ की जानिब उड़ा रहा है
जो कल को कल से मिला रहा है