हनूत जिस्मों के कार-ख़ाने में
लाश रक्खी हुई है किस की
सफ़ेद काग़ज़ बदन पे किस ने
सितम के सब नाम लिख दिए हैं
ये फूल कल तक सहर के आँगन में खिल रहा था
मगर सियाही के तंग हल्क़ों में घिर गया था!
कि ख़्वाब ज़ंजीर बन गए थे
अज़ाब ताबीर बन गए थे
किताब का गर्द-पोश जैसे शिकस्ता हो कर बिखर गया हो
ये किस इबारत के दाएरे अब किसी शहादत के नामा-बर हैं
फ़लक से पूछूँ तो कैसे पूछूँ
कि मरने वाले ने ज़िंदगी की तलाश की थी
तो मौत तक़दीर क्यूँ हुई थी
वो हाथ कब तक क़लम न होंगे
जो ज़र्द जिस्मों को नील-गूँ ज़ख़्म दे रहे हैं
नज़्म
डेड-हाऊस
अहमद ज़फ़र