दोस्त कहते हैं तिरे दश्त-ए-वफ़ा में कैसे
इतनी ख़ुशबू है महकता हो गुलिस्ताँ जैसे
गो बड़ी चीज़ है ग़मख़ारी-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा
कितने बे-गाना-ए-आईन-ए-वफ़ा हैं ये लोग
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म मोहब्बत के चमन-ज़ार में भी
फ़क़त इक गुंचा-ए-मंतिक़ के गदा हैं ये लोग
मैं उन्हें गुलशन-ए-एहसास दिखाऊँ कैसे
जिन की पर्वाज़-ए-बसीरत पर-ए-बुलबुल तक है
वो न देखेंगे कभी हद-ए-नज़र से आगे
और मिरी हद्द-ए-नज़र हद्द-ए-तख़य्युल तक है
दिल के भेदों को भी मंतिक़ में जो उलझाते हैं
यूँ समझ लें कि बबूलों में भी फूल आते हैं
नज़्म
दश्त-ए-वफ़ा
अहमद नदीम क़ासमी