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दरीचे के क़रीब | शाही शायरी
dariche ke qarib

नज़्म

दरीचे के क़रीब

नून मीम राशिद

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जाग ऐ शम-ए-शबिस्तान-ए-विसाल
महफ़िल-ए-ख़्वाब के इस फ़र्श-ए-तरब-नाक से जाग!

लज़्ज़त-ए-शब से तिरा जिस्म अभी चूर सही
आ मिरी जान मेरे पास दरीचे के क़रीब

देख किस प्यार से अनवार-ए-सहर चूमते हैं
मस्जिद-ए-शहर के मीनारों को

जिन की रिफ़अत से मुझे
अपनी बरसों की तमन्ना का ख़याल आता है

सीम-गूँ हाथों से ऐ जान ज़रा
खोल मय-रंग जुनूँ-ख़ेज़ आँखें

उसी मीनार को देख
सुब्ह के नूर से शादाब सही

उसी मीनार के साए तले कुछ याद भी है
अपने बेकार ख़ुदा की मानिंद

ऊँघता है किसी तारीक निहाँ-ख़ाने में
एक अफ़्लास का मारा हुआ मुल्ला-ए-हज़ीं

एक इफ़रीत उदास
तीन सौ साल की ज़िल्लत का निशाँ

ऐसी ज़िल्लत के नहीं जिस का मुदावा कोई
देख बाज़ार में लोगों का हुजूम

बे-पनाह सैल के मानिंद रवाँ
जैसे जिन्नात बयाबानों में

मिशअलें ले के सर-ए-शाम निकल आते हैं
उन में हर शख़्स के सीने के किसी गोशे में

एक दुल्हन सी बनी बैठी है
टिमटिमाती हुई नन्ही सी ख़ुदी की क़िंदील

लेकिन इतनी भी तवानाई नहीं
बढ़ के उन में से कोई शोला-ए-जव्वाला बने!

इन में मुफ़लिस भी हैं बीमार भी हैं
ज़ेर-ए-अफ़्लाक मगर ज़ुल्म सहे जाते हैं

एक बूढ़ा सा थका-माँदा सा रहवार हूँ मैं
भूक का शाह-सवार

सख़्त-गीर और तनोमंद भी है
मैं भी इस शहर के लोगों की तरह

हर शब-ए-ऐश गुज़र जाने पर
ब-हर-ए-जमा-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक निकल जाता हूँ

चर्ख़ गर्दां है जहाँ
शाम को फिर उसी काशाने में लौट आता हूँ

बेबसी मेरी ज़रा देख के मैं
मस्जिद-ए-शहर के मीनारों को

इस दरीचे में से फिर झाँकता हूँ
जब उन्हें आलम-ए-रुख़्सत में शफ़क़ चूमती है