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दर्द उरूज पर आ जाए तो | शाही शायरी
dard uruj par aa jae to

नज़्म

दर्द उरूज पर आ जाए तो

अनवार फ़ितरत

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आ री मैल कुचैली
भूकी नंगी दुनिया

मैं ने इक दिन तेरी क़ीमत
इक कम बेश रूपए रक्खी थी

अपने कहे पर आज बहुत शर्मिंदा हूँ
आ मैं तेरे संग

इक आख़िरी रक़्स करूँ
आग और धुएँ की आमेज़िश से

सिदरा-बोस दरख़्त बनाएँ
और फिर उस के साए तले

हम गरजीले गीतों की लय पर
छाती से छाती टकराएँ

क़दम से क़दम मिलाएँ
क्या इतराता मंज़र है

चरचर करते मास की बॉस में
आवाज़ों का क्या नायाब ख़ज़ाना है

ये इक ऐसी सिम्फ़नी है
जिस में ख़ौफ़ नहीं है

दर्द उरूज पर आ जाए तो
ख़ौफ़ कहाँ रहता है

आह कराह का ऐसा संगम
लफ़्ज़ों में किस ने बाँधा है

जिस्म-ओ-सदा के ऐसे ऐसे दाएरे
बन जाते हैं जिन में

अज़ली निर तक अबद मुग़न्नी ख़ुद भी खो जाते हैं
आ हम चारों सम्त में

आग लगा दें
दरिया और समुंदर भक् से उड़ा दें

ख़ुद को भस्म करें
ऐ री दुनिया

तेरी कराहत से मुझ को
कुछ इश्क़ ही ऐसा है

मैं मरता हूँ
तू भी मर जा