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दावत-ए-फिक्र | शाही शायरी
dawat-e-fikr

नज़्म

दावत-ए-फिक्र

शकेब जलाली

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किस तरह रेत के समुंदर में
कश्ती-ए-ज़ीस्त है रवाँ सोचो

सुन के बाद-ए-सबा की सरगोशी
क्यूँ लरज़ती हैं पत्तियाँ सोचो

पत्थरों की पनाह में क्यूँ है
आइना-साज़ की दुकाँ सोचो

अस्ल सरचश्मा-ए-वफ़ा क्या है
वज्ह-ए-बे-मेहरी-ए-बुताँ सोचो

ज़ौक़-ए-ता'मीर क्यूँ नहीं मिटता
क्यूँ उजड़ती हैं बस्तियाँ सोचो

फ़िक्र-ए-सुक़रात है कि ज़हर का घूँट
बाइ'स-ए-उम्र-ए-जावेदाँ सोचो

लोग मा'नी तराश ही लेंगे
कोई बे-रब्त दास्ताँ सोचो