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डासना स्टेशन का मुसाफ़िर | शाही शायरी
Dasna station ka musafir

नज़्म

डासना स्टेशन का मुसाफ़िर

अख़्तर-उल-ईमान

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कौन सा स्टेशन है?
डासना है साहिब-जी

आप को उतरना है?
''जी नहीं, नहीं,'' लेकिन

डासना तो था ही वो
मेरे साथ 'क़ैसर' थी

ये बड़ी बड़ी आँखें
इक तलाश में खोई

रात भर नहीं सोई
जब मैं उस को पहुँचाने

इस उजाड़ बस्ती में
साथ ले के आया था

मैं ने उन से फिर पूछा
आप मुस्तक़िल शायद

डासना में रहते हैं?
''जी यहाँ पे कुछ मेरी

सूत की दुकानें हैं
कुछ तआम-ख़ाने हैं''

मैं सुना किया बैठा
बोलता रहा वो शख़्स

''कुछ ज़मीन-दारी है
मेरे बाप दादा ने

कुछ मकान छोड़े थे
उन को बेच कर मैं ने

कारोबार खोला है
इस हक़ीर बस्ती में

कौन आ के रहता था
लेकिन अब यही बस्ती

बम्बई है दिल्ली है
क़ीमतें ज़मीनों की

इतनी बढ़ गईं साहिब
इक ज़मीन ही क्या है

खाने पीने की चीज़ें
आम जीने की चीज़ें

भाव दस-गुने हैं अब''
बोलता रहा वो शख़्स

''इस क़दर गिरानी है
आग लग गई जैसे

आसमान हद है बस''
मैं ने चौंक कर पूछा

आसमाँ महल था इक
सय्यदों की बस्ती में

आसमाँ नहीं साहिब
अब महल कहाँ होगा?

हँस पड़ा ये कह कर वो
मेरे ज़ेहन में उस की

बात पय-ब-पय गूँजी
''अब महल कहाँ होगा''

इस दयार में शायद
'क़ैसर' अब नहीं रहती

वो बड़ी बड़ी आँखें
अब न देख पाऊँगा

मुल्क का ये बटवारा
ले गया कहाँ उस को

देवढ़ी का सन्नाटा
और हमारी सरगोशी

''मुझ से कितने छोटे हो''
मैं ने कुछ कहा था फिर

उस ने कुछ कहा था फिर
है रक़म कहाँ वो सब

दर्द की गिराँ-जानी
मेरी शोला-अफ़्शानी

उस की जल्वा-सामानी
है रक़म कहाँ वो अब

कर्ब-ए-ज़ीस्त सब मेरा
गुफ़्तुगू का ढब मेरा

उस का हाथ हाथों में
ले के जब मैं कहता था

अब छुड़ाओ तो जानूँ
रस्म-ए-बेवफ़ाई को

आज मो'तबर मानूँ
उस को ले के बाहोँ में

झुक के उस के चेहरे पर
भेंच कर कहा था ये

बोलो कैसे निकलोगी
मेरी दस्तरस से तुम

मेरे इस क़फ़स से तुम
भूरे बादलों का दल

दूर उड़ता जाता है
पेड़ पर कहीं बैठा

इक परिंद गाता है
''चिल-चिल'' इक गिलहरी की

कान में खटकती है
रेल चलने लगती है

राह के दरख़्तों की
छाँव ढलने लगती है

''मुझ से कितने छोटे हो''
और मिरी गिराँ-गोशी

देवढ़ी का सन्नाटा
और हमारी सरगोशी

है रक़म कहाँ वो सब?
दूर उस परिंदे ने

अपना गीत दोहराया
''आज हम ने अपना दिल

ख़ूँ किया हुआ देखा
गुम किया हुआ पाया''