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क्लर्क का नग़्मा-ए-मोहब्बत | शाही शायरी
clerk ka naghma-e-mohabbat

नज़्म

क्लर्क का नग़्मा-ए-मोहब्बत

मीराजी

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सब रात मिरी सपनों में गुज़र जाती है और मैं सोता हूँ
फिर सुब्ह की देवी आती है

अपने बिस्तर से उठता हूँ मुँह धोता हूँ
लाया था कल जो डबल-रोटी

उस में से आधी खाई थी
बाक़ी जो बची वो मेरा आज का नाश्ता है

दुनिया के रंग अनोखे हैं
जो मेरे सामने रहता है उस के घर में घर-वाली है

और दाएँ पहलू में इक मंज़िल का है मकाँ वो ख़ाली है
और बाएँ जानिब इक अय्याश है जिस के हाँ इक दश्ता है

और इन सब में इक मैं भी हूँ लेकिन बस तू ही नहीं
हैं और तो सब आराम मुझे इक गेसुओं की ख़ुशबू ही नहीं

फ़ारिग़ होता हूँ नाश्ते से और अपने घर से निकलता हूँ
दफ़्तर की राह पर चलता हूँ

रस्ते में शहर की रौनक़ है इक तांगा है दो कारें हैं
बच्चे मकतब को जाते हैं और तांगों की क्या बात कहूँ

कारें तो छिछलती बिजली हैं तांगों के तीरों को कैसे सहूँ
ये माना इन में शरीफ़ों के घर की धन-दौलत है माया है

कुछ शोख़ भी हैं मासूम भी हैं
लेकिन रस्ते पर पैदल मुझ से बद-क़िस्मत मग़्मूम भी हैं

तांगों पर बर्क़-ए-तबस्सुम है
बातों का मीठा तरन्नुम है

उकसाता है ध्यान ये रह रह कर क़ुदरत के दिल में तरह्हुम है
हर चीज़ तो है मौजूद यहाँ इक तू ही नहीं इक तू ही नहीं

और मेरी आँखों में रोने की हिम्मत ही नहीं आँसू ही नहीं
जूँ तूँ रस्ता कट जाता है और बंदी-ख़ाना आता है

चल काम में अपने दिल को लगा यूँ कोई मुझे समझाता है
मैं धीरे धीरे दफ़्तर में अपने दिल को ले जाता हूँ

नादान है दिल मूरख बच्चा इक और तरह दे जाता हूँ
फिर काम का दरिया बहता है और होश मुझे कब रहता है

जब आधा दिन ढल जाता है तो घर से अफ़सर आता है
और अपने कमरे में मुझ को चपरासी से बुलवाता है

यूँ कहता है वूँ कहता है लेकिन बेकार ही रहता है
मैं उस की ऐसी बातों से थक जाता हूँ थक जाता हूँ

पल-भर के लिए अपने कमरे को फाइल लेने आता हूँ
और दिल में आग सुलगती है मैं भी जो कोई अफ़सर होता

इस शहर की धूल और गलियों से कुछ दूर मिरा फिर घर होता
और तू होती

लेकिन मैं तो इक मुंशी हूँ तू ऊँचे घर की रानी है
ये मेरी प्रेम-कहानी है और धरती से भी पुरानी है