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च्यूँटी-भर आटा | शाही शायरी
chyunTi-bhar aaTa

नज़्म

च्यूँटी-भर आटा

सारा शगुफ़्ता

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हम किस दुख से अपने मकान फ़रोख़्त करते हैं
और भूक के लिए च्यूँटी-भर आटा ख़रीदते हैं

हमें बंद कमरों में क्यूँ पिरो दिया गया है
एक दिन की उम्र वाले तो अभी दरवाज़ा ताक रहे हैं

चाल लहू की बूँद बूँद माँग रही है
किसी को चुराना हो तो सब से पहले उस के क़दम चुराओ

तुम चीथड़े पर बैठे ज़बान पे फूल हो
और आवाज़ कोर सी कोर

इंसान का पियाला समुंदर के प्याले से मिट्टी निकालता है
मिट्टी के साँप बनाता है और भूक पालता है

तिनके जब शुआ'ओं की प्यास न बुझा सके तो आग लगी
मैं ने आग को धोया और धूप को सुखाया

सूरज जो दिन का सीना जला रहा था
आसमानी रंग से भर दिया

अब आसमान की जगह कोरा काग़ज़ बिछा दिया गया
लोग मौसम से धोका खाने लगे

फिर एक आदमी को तोड़ कर मैं ने सूरज बनाया
लोगों की पोरें कुएँ में भर दीं

और आसमान को धागा किया
काएनात को नई करवट नसीब हुई

लोगों ने ईंटों के मकान बनाना छोड़ दिए
आँखों की ज़बान-दराज़ी रंग लाई

अब एक क़दम पे दिन और एक क़दम पे रात होती
हाल जुरअत-ए-गुज़िश्ता है

आ तेरे बालों से शुआ'ओं के इल्ज़ाम उठा लूँ
तुम अपनी सूरत पहाड़ की खोह में इशारा कर आए

कुंद हवाओं का ए'तिराफ़ है
सफ़र एड़ी पे खड़ा हुआ

समुंदर और मिट्टी ने रोना शुरूअ' कर दिया है
बेलचे और बाज़ू को दो बाज़ू तसव्वुर करना

सूरज आसमान के कोने के साथ लटका हुआ था
और अपनी शुआएँ अपने जिस्म के गिर्द लपेट रखी थीं

मैं ने ख़ाली कमरे में मुआ'फ़ी रखी
और मेरा सीना दूसरों के दरवाज़े पर धड़कता रहा