ये होना था ये होना था
कि मैं ने इक अजब
असरार के अंदर
चले जाने की ख़्वाहिश की
जहाँ ख़स्ता चटानें जा-ब-जा बिखरी पड़ी थीं
शजर पथरा गए थे
कलस मीनार गुम्बद भर चुके थे
जहाँ इक धुँद का बे-अंत
लम्बा ग़ार था
जिस में नहीं की बादशाहत थी
मैं खिंचता जा रहा था ग़ार की जानिब
उतरता जा रहा था इक अजब असरार के अंदर
जहाँ इक पर था ठंडी रौशनी का
जो होने की अनोखी दास्ताँ
अंधे ख़ला की लौह पर तहरीर करता जा रहा था
मुझे असरार के हाले के अंदर
यूँ चले जाने की जुरअत क्यूँ हुई
मैं किस लिए ठहरा रहा
हैरान शश्दर बे-धड़क
वापस चले जाने का
मैं ने क्यूँ न सोचा उस घड़ी
और अब ये हाल है मेरा
कि मैं इक पर कटे ताइर की सूरत
शिफ़ा-ख़ाने की ममता से भरी झोली के अंदर
सर-निगूँ हूँ
मगर मैं एक चुटकी रौशनी तो ले ही आया हूँ

नज़्म
चुटकी भर रौशनी
वज़ीर आग़ा