इक रोए चलाए तड़पे कलपे और कलपाए
इक इक से कहे राम-कहानी
दिल का दर्द बताए
मन की चोट दिखा बेचारा सौदाई कहलाए
इक झल्लाए तैश में आए
बिफरे और बल खाए
आँसू पी पी कर रह जाए
जान पे दुख सह जाए
तेरे साथ लड़ाई ठाने लेकिन मुँह की खाए
इक छुप छुप कर नीर बहाए
मन को ये समझाए
चुप चुप जान पे सह जा पगले
ईश्वर का अन्याय
अपनी आन बचाए लेकिन वो पापी बन जाए
मैं तेरी करनी पर राज़ी
मुँह से न निकले हाए
मेरे मन का घाव फिर भी गहरा होता जाए
जग की आँखें बंद किए है ये काया की ओट
मेरी दूनी हो गई चोट
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नज़्म
चोट
अब्दुल मजीद भट्टी