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चारा-गर | शाही शायरी
chaara-gar

नज़्म

चारा-गर

मख़दूम मुहिउद्दीन

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इक चमेली के मंडवे-तले
मय-कदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर

दो बदन
प्यार की आग में जल गए

प्यार हर्फ़-ए-वफ़ा प्यार उन का ख़ुदा
प्यार उन की चिता

दो बदन
ओस में भीगते चाँदनी में नहाते हुए

जैसे दो ताज़ा-रौ ताज़ा-दम फूल पिछले-पहर
ठंडी ठंडी सुबुक-रौ चमन की हवा

सर्फ़-ए-मातम हुई
काली काली लटों से लपट गर्म रुख़्सार पर

एक पल के लिए रुक गई
हम ने देखा उन्हें

दिन में और रात में
नूर-ओ-ज़ुल्मात में

मस्जिदों के मनारों ने देखा उन्हें
मंदिरों के किवाड़ों ने देखा उन्हें

मय-कदों की दराड़ों ने देखा उन्हें
अज़-अज़ल ता-अबद

ये बता चारा-गर
तेरी ज़म्बील में

नुस्ख़ा-ए-कीमीया-ए-मुहब्बत भी है
कुछ इलाज ओ मुदावा-ए-उल्फ़त भी है

इक चमेली के मंडवे-तले
मय-कदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर

दो बदन