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चाँद-रात | शाही शायरी
chand-raat

नज़्म

चाँद-रात

सय्यद फ़ैज़ी

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दूर कव्वों ने बैठ कर लब-ए-जू
फिर हिलाए थके थके बाज़ू

गर रही हैं सियाहियाँ हर-सू
एक ही बार दल के दरवाज़े

खुलते हैं और फिर नहीं खुलते
रात औरत है गरचे तीरा-जबीं

दिल मगर कारवान-ए-सराए नहीं
एक ऐवाँ है जिस के दरवाज़े

खुल के इक बार फिर नहीं खुलते
एक बेवा के नौजवाँ जज़्बात

सोच रौशन मगर अंधेर हयात
चाँदनी नग़्मा-हा-ए-कैफ़-ओ-सुरूर

चंद लम्हों का इक फ़साना-ए-नूर
और फिर तीरगी सहर-अंदेश

जिस तरह कोई एक पल के लिए
अपना आँचल बिखेर कर चुन ले

और फिर पर्दा-हाय-ए-तारीकी
एक ही बार दल के दरवाज़े

खुलते हैं और फिर नहीं खुलते