दूर कव्वों ने बैठ कर लब-ए-जू
फिर हिलाए थके थके बाज़ू
गर रही हैं सियाहियाँ हर-सू
एक ही बार दल के दरवाज़े
खुलते हैं और फिर नहीं खुलते
रात औरत है गरचे तीरा-जबीं
दिल मगर कारवान-ए-सराए नहीं
एक ऐवाँ है जिस के दरवाज़े
खुल के इक बार फिर नहीं खुलते
एक बेवा के नौजवाँ जज़्बात
सोच रौशन मगर अंधेर हयात
चाँदनी नग़्मा-हा-ए-कैफ़-ओ-सुरूर
चंद लम्हों का इक फ़साना-ए-नूर
और फिर तीरगी सहर-अंदेश
जिस तरह कोई एक पल के लिए
अपना आँचल बिखेर कर चुन ले
और फिर पर्दा-हाय-ए-तारीकी
एक ही बार दल के दरवाज़े
खुलते हैं और फिर नहीं खुलते
नज़्म
चाँद-रात
सय्यद फ़ैज़ी