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कैलेंडर | शाही शायरी
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नज़्म

कैलेंडर

इशरत आफ़रीं

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ध्यान की दीवारों से
गए दिनों की यादें कैसे उतारूँ

इस कैलेंडर में जितनी तस्वीरें हैं
सब मुझ को जान से प्यारी हैं

इस में पहली तस्वीर जो है
ये मेरा सहमा सहमा ख़ौफ़-ज़दा बचपन

जिस के पस-मंज़र में जीवन
सौतेली माओं जैसी सफ़्फ़ाकी से मुझ को तकता है

महरूमी मेरे गाल मसल कर
रोटी का टुकड़ा देती है

और भूक टहोका देती है
इस में दूजी तस्वीर जो है

ये सब्ज़ लड़कपन की दहलीज़ पे
नंगे पाँव

फटे लिबादे
ख़्वाबों की उजली परियों की संगत में

इक बच्ची दौड़ी जाती है
इक ख़्वाहिश उड़ती जाती है

रंगीन ग़ुबारों की सूरत
जो हाथों से छुट जाते हैं

उस में अगली तस्वीर जो है
ये भोर समय की दूरी पर

इक बस्ती की
जिस बस्ती में

इक आँगन है
जिस आँगन में

इक फूल सदा से खिला हुआ
इक आग मुसलसल रौशन है

वो आग
कि जिस को हिज्र की अंधी रातें भी कजला न सकीं

वो फूल
कि जिस को दुख की गर्म हवाएँ भी कुम्हला न सकीं

इन तस्वीरों में ज़िंदा है
इन तस्वीरों में रौशन है