मैं मोहब्बत के सितारों से निकलता हुआ नूर
हक़-ओ-नाहक़ के लिबादों में छुपा एक शुऊ'र
मेरे ही दम से हुआ मस्जिद-ओ-मंदिर का ज़ुहूर
मैं मुस्लमान-ओ-बरहमन के इरादों का फ़ुतूर
मैं हया-ज़ादी-ओ-ख़ुश-नैन के होंटों का सुरूर
किसी मजबूर तवाइफ़ की निगाहों का क़ुसूर
मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं ख़ुद ही ज़मीं पर जाऊँ
और ज़मीं-ज़ाद का ख़ुद जा के मैं अंजाम करूँ
वो ज़मीं-ज़ाद कि एहसान-फ़रामोश है जो
वो ज़मीं-ज़ाद कि जो ख़ुद ही ज़मीं पर उतरा
और ज़मीं वो जो वफ़ादार नहीं हो सकती
वो ज़मीं जिस पे कई ख़ून के इल्ज़ाम लगे
वो ज़मीं जिस ने यहाँ देखे हैं कटते हुए सर
वो ज़मीं देती रही है जो गुनाहों को पनाह
वो ज़मीं जिस ने छुपाए हैं कई राज़-ओ-नियाज़
साज़िशें होती रहीं जिस पे मोहब्बत के ख़िलाफ़
और वो चुप है उगलती ही नहीं एक भी लफ़्ज़
मसअला ये है कि अब किस से गवाही माँगूँ
नज़्म
गवाही
वक़ार ख़ान