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बुलबुल | शाही शायरी
bulbul

नज़्म

बुलबुल

मजनूँ गोरखपुरी

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चमन में लाई है फूलों की आरज़ू तुझ को
मिला कहाँ से ये एहसास-ए-रंग-ओ-बू तुझ को

तिरी तरह कोई सर-गश्ता-ए-जमाल नहीं
गुलों में महव है काँटों का कुछ ख़याल नहीं

ख़िज़ाँ का ख़ौफ़ न है बाग़बाँ का डर तुझ को
मआल-ए-कार का भी कुछ ख़तर नहीं तुझ को

ख़ुश-ए'तिक़ाद ओ ख़ुश-आहंग ख़ुश-नवा बुलबुल
जिगर के दाग़ को पुर-नूर कर दिया किस ने

तुझे इस आग से मामूर कर दिया किस ने
ये दिल ये दर्द ये सौदा कहाँ से लाई है

कहाँ की तू ने ये तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ उड़ाई है
तुझे बहार का इक मुर्ग़-ए-ख़ुश-नवा समझूँ

कि दर्द-मंद दिलों की कोई सदा समझूँ
सिवा इक आह के सामान-ए-हस्त-ओ-बूद है क्या

तू ही बता तिरा सरमाया-ए-वजूद है क्या
वो नक़्द-ए-जाँ है कि है नाला-ए-हज़ीं तेरा

निशान-ए-हस्ती-ए-मौहूम कुछ नहीं तेरा
उसे भी वक़्फ़-ए-तमन्ना-ए-यार कर देना!

निसार-ए-जल्वा-ए-गुल जान-ए-ज़ार कर देना!
हज़ार रंग ख़िज़ाँ ने बहार ने बदले

हज़ार रूप यहाँ रोज़गार ने बदले
तिरी क़दीम रविश देखता हूँ बचपन से

है सुब्ह-ओ-शाम तुझे काम अपने शेवन से
असर-पज़ीर हवादिस तिरा तराना नहीं?

दयार-ए-इश्क़ में या गर्दिश-ए-ज़माना नहीं?
न आशियाना कहीं है न है वतन तेरा

रहेगा यूँही बसेरा चमन चमन तेरा
तिरा जहान है बाला जहान-ए-इंसाँ से

कि बे-नियाज़ है तू हादसात-ए-इम्काँ से
तिरा फ़रोग़ फ़रोग़-ए-जमाल-ए-जानाँ है

तिरा नशात नशात-ए-गुल-ओ-गुलिस्ताँ है
तिरी हयात का मक़्सद ही दोस्त-दारी है

तिरा मुआमला सूद ओ ज़ियाँ से आरी है
अज़ल के दिन से है महव-ए-जमाल-ए-जानाना

रहेगी ता-ब-अबद मा-सिवा से बेगाना
तुझे किस आग ने हिर्स-ओ-हवा से पाक किया

तमाम ख़िर्मन-ए-हस्ती जला के ख़ाक किया
मुझे भी दे कोई दारू-ए-ख़ुद-फ़रामोशी

जहाँ ओ कार-ए-जहाँ से रहे सुबुकदोशी
मता-ए-होश को इक जुस्तुजू में खोना है

मुझे भी यानी तिरा हम-सफ़ीर होना है
''तू ख़ुश बनाल मरा बा तू हसरत-ए-यारी अस्त

कि मा दो आशिक़-ए-ज़ारेम ओ कार-ए-मा ज़ारी अस्त''