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बुढ़ापा | शाही शायरी
buDhapa

नज़्म

बुढ़ापा

रज़ी रज़ीउद्दीन

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यूँ गुमाँ हो रहा है मेरे नदीम
जैसे अब गुल्सिताँ में रंग नहीं

जैसे अब दिल में कुछ उमंग नहीं
आसमान बदलियों की ज़द में है

ज़र्द-आलूद हैं फ़ज़ाएँ भी
सुर्ख़ सूरज की कपकपाती किरन

छू रही है उफ़ुक़ के साए को
फैलती जा रही है शब की लकीर

सेहन-ए-ज़िंदाँ के चार-पायों पर
डूबती मेरी ख़्वाबीदा आँखें

देखती जाती हैं पुराने ख़्वाब
गुज़रे अय्याम के अधूरे ख़्वाब

ज़िंदगी से भरे सिसकते ख़्वाब
दस्त-ओ-बाज़ू हैं कितने पज़-मुर्दा

नब्ज़-ए-हस्ती है कितनी आहिस्ता
एक दिल है कि धड़के जाए है

जैसे गिर्दाब ता-सफ़ीना कोई