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बिन्त-ए-हिमाला | शाही शायरी
bint-e-himala

नज़्म

बिन्त-ए-हिमाला

परवेज़ शाहिदी

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आह! गंगा ये हसीं पैकर-ए-बिल्लोर तिरा
तेरी हर मौज-ए-रवाँ जलवा-ए-मग़रूर तिरा

जौर-ए-मग़रिब से मगर दिल है बहुत चूर तिरा
झाँकता है तिरे गिर्दाब से नासूर तिरा

ज़ुल्म ढाए हैं सफ़ीनों ने सितमगारों के
ज़ख़्म अब तक तिरे सीने पे हैं पतवारों के

महव रहते थे सितारे तिरी मय पीने में
चाँद मुँह देखता था तेरे ही आईने में

ख़ल्वत-ए-महर दरख़्शाँ थी तिरे सीने में
तेरी ताबानियाँ आती न थीं तख़मीने में

आज रोती है मगर तेरी जवानी तुझ को
खा गया आ के यहाँ 'टेम्स' का पानी तुझ को

आह ऐ कोह-ए-हिमाला के ग़ुरूर-ए-सय्याल
तेरे दामन पे कभी बैठी न थी गर्द-ए-मलाल

मुँह तिरा पोंछता था चाँद का सीमीं रूमाल
ज़ख़्म सीने पे लिए आज हैं धारे तेरे

उफ़ कहाँ डूब गए चाँद सितारे तेरे
रेग-ए-दोज़ख़ को छुपाए है क़बा के अंदर

हौल-नाक आज है कितना ये दहकता मंज़र
शाम ही शाम नज़र आती है क्यूँ साहिल पर?

क्यूँ तिरी मौजों से छन्ते नहीं अनवार-ए-सहर?
रौशनी क्यूँ हुई जाती है गुरेज़ाँ तुझ से

क्यूँ अँधेरों के हैं लिपटे हुए तूफ़ाँ तुझ से
आज साहिल पे नज़र आती है जलती हुई आग

आदमिय्यत का सुलगता है हवाओं में सुहाग
आज है साज़-ए-सियासत का भयानक सा राग

फन उठाए हुए बल खाते हैं शोलों के नाग
आज इंसान को डसती हैं हवाएँ तेरी

ज़हर से कितनी हैं लबरेज़ फ़ज़ाएँ तेरी
आई है टेम्स से इक मौज-ए-रवाँ गाती हुई

तुझ को आज़ादी के पैग़ाम से बहलाती हुई
रूह मय-ख़ाना लिए शौक़ को बहकाती हुई

नाज़ करती हुई हँसती हुई इठलाती हुई
लाख उलझा करें ज़ुल्फ़ों में उलझने वाले

इस के इश्वों को समझते हैं समझने वाले
लेकिन ऐ बिन्त-ए-हिमाला तिरी अज़्मत की क़सम

सैल के साँचे में ढाली हुई रिफ़अत की क़सम
तेरे जल्वों की क़सम, तेरी लताफ़त की क़सम

तेरी मौजों से उभरती हुई हिम्मत की क़सम
अब तिरी आँखों को नमनाक न होने देंगे

दामन-ए-नाज़ तिरा चाक न होने देंगे