EN اردو
बिछड़े घर का साया | शाही शायरी
bichhDe ghar ka saya

नज़्म

बिछड़े घर का साया

फ़रहत एहसास

;

सुब्ह-सवेरे
वो बिस्तर से साए जैसी उठती है

फिर चूल्हे में रात की ठंडी आग को
रौशन करती है

इतने में दिन चढ़ जाता है
जल्दी जल्दी चाय बना कर शौहर को रुख़्सत करती है

सय्यारे गर्दिश करते हैं
शहर में सहरा सहराओं में चटयल मैदाँ

कोहसारों के नशेब-ओ-फ़राज़ बना करते हैं
सारे घर को धोती है

कपड़े तौलिए टूथ-ब्रश बिस्तर की चादर
कोई किताब उठाती है रख देती है

रेडियो ऑन किया फिर रोका ऑन किया
फिर कोई पुराना ख़त पढ़ती है

(घंटी बजी)
''मर्यम! आ जाओ''

''तुम कैसी हो? वो कैसे हैं''
''क्या उस का कोई ख़त आया?''

(थोड़ी ख़ामोशी का वक़्फ़ा)
''तुम कैसी हो''

''तुम से मतलब? सच कह दूँ तो क्या कर लोगी''
देखो सब की सब बैठी हों

''अच्छा''
''अच्छा''

(दरवाज़ा फिर बंद हो गया)
''अब क्या करना!

घर तो बिल्कुल साफ़ पड़ा है
कोई शिकन बिस्तर पे नहीं है

दीवार-ओ-दर धुले-धुलाए
कोई धब्बा या मकड़ी का जाला तिनका

कहीं कुछ नहीं
क्या करना है!

उफ़! वो कैलेंडर
कितने बरस हो गए फिर भी

आएँ तो उन से कहती हूँ
बिल्कुल नया कैलेंडर लाएँ

कुछ भूक नहीं
अब क्या करना है

लेट रहूँ? लेकिन क्या लेटूँ
जाने कितना लेट चुकी हूँ

खड़ी रहूँ
हाँ खड़ी रहूँ

पर मैं तो कब से खड़ी हुई हूँ
खिड़की का पर्दा ही खोलूँ

धूप कहाँ तक आ पहुँची है
लाओ अपना एल्बम देखूँ

नय्यर शबनम शफ़क़ सुबूही अख़्तर जूही
कैसे होंगे

आँ! ये मैं हूँ
इत्ती प्यारी प्यारी थी मैं

मैं बिल्कुल ही भूल गई थी
सब कितना अच्छा लगता था

अब्बा, अम्माँ, भय्या, अप्पी
सब ज़िंदा थे

साया नानी गुलशन आपा
हाँ और वो गौरय्या बाबा

आँसू नग़्मे शोर ठहाके सारे इक सुर में होते थे
सारी दुनिया घर लगती थी

अमाँ उधर बुलाया करतीं
अब्बा उधर पुकारा करते

भय्या डाँटते
अप्पी ढेरों प्यार जतातीं

खाना, पीना, सोना, जागना, हँसना, रूठना, मनना
डोर बंधी थी

एक में एक पिरोया हुआ था
कल नम्मू के घर शादी है

पास ही कोई मौत हुई है
कॉलेज की छटी कब होगी

ईद फिर अब की तीस की होगी
हम भी लैल-ए-क़द्र जागेंगे

शहला की मँगनी क्यूँ टूटी?
क्या इक़बाल कोई शाएर था?

चुप बड़के अब्बा सुन लेंगे
साए दौड़ रहे हैं घर में

हर गोशे में ऊपर नीचे अंदर बाहर दौड़ रहे हैं
लम्बे छोटे सब्ज़ ओ ज़र्द हज़ारों साए

बाहर शहर में कोई नहीं है
धूप सियह पड़ती जाती है

क़द्द-ए-आदम आईने में
उस का नंगा जिस्म खड़ा है

जिस्म के अंदर सूरज का ग़ुंचा महका है
सय्यारे गर्दिश करते हैं

सब अनजाने सय्यारों में भूले-बिसरे घर रौशन हैं
किस लम्हे का है ये तमाशा

हस्त-ओ-बूद के सन्नाटे में
ला-मौजूद की तारीकी में

सिर्फ़ यही आईना रौशन
सिर्फ़ इक अक्स-ए-गुज़िश्ता रौशन

बिछड़े घर का साया रौशन