वो तो यूँ था कि हम 
अपनी अपनी ज़रूरत की ख़ातिर 
अपने अपने तक़ाज़ों को पूरा किया 
अपने अपने इरादों की तकमील में 
तीरा-ओ-तार ख़्वाहिश की संगलाख़ राहों पे चलते रहे 
फिर भी राहों में कितने शगूफ़े खिले 
वो तो यूँ था कि बढ़ते गए सिलसिले 
वर्ना यूँ है कि हम 
अजनबी कल भी थे 
अजनबी अब भी हैं 
अब भी यूँ है कि तुम 
हर क़सम तोड़ दो 
सब ज़िदें छोड़ दो 
और अगर यूँ न था तो यूँही सोच लो 
तुम ने इक़रार ही कब किया था कि मैं 
तुम से मंसूब हूँ 
मैं ने इसरार ही कब किया था कि तुम 
याद आओ मुझे 
भूल जाओ मुझे
        नज़्म
भूल जाओ मुझे
मोहसिन नक़वी

