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भूक | शाही शायरी
bhuk

नज़्म

भूक

मुनीबुर्रहमान

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एक गाली जो कीचड़ के मानिंद चस्पाँ हुई
होंट जो कासा-ए-मुफ़लिसी बन गए

हाथ जो गर्दनों पर झपटने लगे
और चावल के जब चंद दाने मिले

अंतड़ियों का ये आतिश-फ़िशाँ बुझ गया
पेट की भूक सच-मुच जहन्नम का तनूर है

लेकिन इस भूक का क्या मुदावा करें
जो उसूलों के इस क़हत में

अपने ज़ख़्मों पे ख़ामोश है
शार-ए-आम पर चाटती है उन्हें

और इस भीड़ में
कौन है जो उसे भीक दे

सब भिकारी हैं कोई दयालू नहीं