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बे-नंग-ओ-नाम | शाही शायरी
be-nang-o-nam

नज़्म

बे-नंग-ओ-नाम

शाज़ तमकनत

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रात ढलते ही इक आवाज़ चली आती है
भूल भी जाओ कि मैं ने तुम्हें चाहा कब था

किस सनोबर के तले मैं ने क़सम खाई थी
कोई तूफ़ाँ किसी पूनम में उठाया कब था

मेरी रातों को किसी दर्द से निस्बत क्या थी
मेरी सुब्हों को दुआओं से इलाक़ा कब था

एक महमिल के सिरहाने कोई रोया था ज़रूर
पस-ए-महफ़िल किसी लैला ने पुकारा कब था

तुम यूँही ज़िद में हुए ख़ाक-ए-दर-ए-मय-ख़ाना
मुझ को ये ज़ोम कि मैं ने तुम्हें टोका कब था

तुम ने क्यूँ पाकई-ए-दामाँ की हिकायत लिक्खी
मेरे सर को किसी दीवार का सौदा कब था

याद कम कम है न छेड़ो मिरे मक्तूब की बात
वो मुरव्वत थी फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना कब था

दिल न इस तरह दुखा साफ़ मुकरने वाले
मुझ को तस्लीम कि तेरी कोई तक़्सीर न थी

ये बजा है कि तुझे ज़ौक़-ए-नशेमन न मिला
ये ग़लत है कि मुझे हसरत-ए-तामीर न थी

संग-बारी में ये शीशे का मकाँ किस का है
इस दर-ओ-बाम में ख़ुशबू-ए-वफ़ा कैसी है

किस की आवाज़ से दीवारों के सीने में फ़िगार
मेरे माबूद मिरे घर की फ़ज़ा कैसी है

छाँव देते नहीं आँगन के घनेरे अश्जार
ग़म की छाई हुई घनघोर घटा कैसी है

एक कोंपल पे था अंगुश्त-ए-हिनाई का निशाँ
ये लहू रोती हुई शाख़-ए-हिना कैसी है

किस की तस्वीर है ये जिस पे गुमाँ होता है
जाने कब बोल उठे उफ़ ये अदा कैसी है

किस ने तकिया पे ये काढ़ा है गिरे का मिसरा
हाए टूटी हुई नींदों की सज़ा कैसी है

सोच में गुम हूँ कि किस किस की ज़बाँ बंद करूँ
आज शायद दर ओ दीवार को ढाना होगा

जिस में तू है तिरे वादे हैं तिरी क़समें हैं
क्या सितम है कि उसी घर को जलाना होगा