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बे-ख़्वाब नींद | शाही शायरी
be-KHwab nind

नज़्म

बे-ख़्वाब नींद

निदा फ़ाज़ली

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न जाने कौन वो बहरूपिया है
जो हर शब

मिरी थकी हुई पलकों की सब्ज़ छाँव में
तरह तरह के करिश्मे दिखाया करता है

लपकती सुर्ख़ लपट
झूमती हुई डाली

चमकते ताल के पानी में डूबता पत्थर
उभरते फैलते घेरों में तैरते ख़ंजर

उछलती गेंद रबड़ की सधे हुए दो हाथ
सुलगते खेत की मिट्टी पे टूटती बरसात

अजीब ख़्वाब हैं ये
बिना वज़ू किए सोई नहीं कभी मैं तो

मैं सोचती हूँ
किसी रोज़ अपनी भाबी के

चमकते पाँव की पाज़ेब तोड़ कर रख दूँ
बड़ी शरीर है हर वक़्त शोर करती हैं

किसी तरह सही बे-ख़्वाब नींद तो आए
घड़ी घड़ी की मुसीबत से जान छुट जाए