हज़ार बार हुआ यूँ कि जब उमीद गई
गुलों से राब्ता टूटा न ख़ार अपने रहे
गुमाँ गुज़रने लगा हम खड़े हैं सहरा में
फ़रेब खाने की जा रह गई, न सपने रहे
नज़र उठा के कभी देख लेते थे ऊपर
न जाने कौन से आमाल की सज़ा है कि आज
ये वाहिमा भी गया सर पे आसमाँ है कोई
नज़्म
बे-चारगी
अख़्तर-उल-ईमान