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सौग़ात | शाही शायरी
saughat

नज़्म

सौग़ात

दाऊद ग़ाज़ी

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मैं तो हैरान हूँ किस तरह कटे राह-ए-हयात
इक नया मोड़ बहर-गाम उभर आता है

सर-ए-तारीकी-ए-शब खुल जो गया आख़िर-ए-शब
फिर नया राज़ ब-हर-सुब्ह निखर आता है

जाँचता फिरता हूँ माज़ी के खंडर हसरत से
देखता फिरता हूँ हर नक़्श-ए-हसीं हैरत से

सोचता फिरता हूँ कौन आया था कब आया था
उस जगह साथ लिए काविश-ए-तकमील-ए-हयात

ढूँढता फिरता हूँ शायद कि ये माज़ी के नुक़ूश
कुछ पता दें कि शब रोज़ बताऊँ क्यूँकर

ग़म के क़ाबिल मैं ख़ुद अपने को बनाऊँ क्यूँकर
नित नए ग़म के गिराँ-बार उठाऊँ क्यूँकर

दूर इक हुस्न का पंछी सा नज़र आता है
क़ैद कर लूँ उसे शायद कि बहल जाए ये दिल

दिल की आवाज़ थकी-हारी फ़सुर्दा बोझल
जिस ने तख़ईल की दुनिया में मचा दी हलचल

मैं कोई तिफ़्ल नहीं हूँ कि बहल जाऊँगा
न करो क़ैद मुझे हुस्न के बहलाओं में

इक नज़र झाँक के देखो मिरी आशाओं में
तुम ही ख़ुद शर्म से हो जाओगे पानी पानी

एक बेबस को मगर देते हो क्यूँ ऐसा फ़रेब
अब मैं किस रह में ग़म-ए-दिल का मुदावा ढूँडूँ

अन-गिनत फ़िक्र की राहें नज़र आती हैं मुझे
इक नया मोड़ ब-हर-गाम उभर आता है

और हर मोड़ नज़र आता है कितना दिलकश
जन्नत-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र चाँद-सितारों का जहाँ

जैसे अंदाज़-ए-सबा जैसे बहारों का जहाँ
जैसे जादू भरे नैनों के निगारों का जहाँ

जैसे मा'सूम निगाहों में इशारों का जहाँ
जैसे फूलों भरी शाख़ों पे शरारों का जहाँ

उफ़ मैं किस रह में ग़म-ए-दिल का मुदावा ढूँडूँ
किस तरफ़ जाऊँ किसे दिल से लगाए रक्खूँ

ज़िंदगी भर कि फिर उस ज़ीस्त को जन्नत समझूँ
हर-दम एक एक नफ़स चाहे जिधर जा के रहूँ

कौन इस ज़ीस्त को कर सकता है महदूद-ओ-मुक़ीम
उस की एक एक अदा बर्क़-सिफ़त शो'ला-नफ़स

जी रहा हूँ नई उम्मीद लिए हर इक पल
ग़म लिए दिल में कि मैं क्या न बना क्यूँ न बना

ख़ुश हूँ हर ग़म से कि इदराक की सौग़ात है ये
सोच लेता हूँ कि मैं क्या हूँ यही क्या कम है