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बंजर ज़मीं का ख़्वाब | शाही शायरी
banjar zamin ka KHwab

नज़्म

बंजर ज़मीं का ख़्वाब

नाज़ बट

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कई सदियों से सहरा की सुलगती रेत पर तन्हा खड़ी मैं सोचती हूँ
नहीं कोई नहीं है

नहीं कोई नहीं है जो मिरे अंदर बिलक्ती ख़ामुशी को थपकियाँ दे कर सुला डाले
मोहब्बत ओक में भर कर पिला डाले

ये कैसी बे-नियाज़ी है
कि जलती एड़ियों की सिसकियाँ सन कर भी बादल चुप रहा है

ये कैसे रत-जगे आँखों में उतरे हैं
कि जिन के सिलसिले क़रनों पे फैले हैं

मगर मैं हिज्र के मौसम लिए
कब से

किसी बंजर ज़मीं के ख़्वाब का तावान भरती हूँ