दरख़्त दिन रात काँपते हैं
परिंद कितने डरे हुए हैं
फ़लक पे तारे ज़मीं पे जुगनू
घरों के अंदर छुपे ख़ज़ाने
कटे फटे सब बदन पुराने
क़दीम चिकनी तवील डोरी में बंध गए हैं
कसीफ़ डर की ग़लीज़ मुट्ठी में आ गए हैं
कहाँ गए वो दिलों के बंधन
गुलाब-होंटों की नर्म क़ौसें
ज़मीं जो राखी सी बन के
सूरज के हाथ पर मुस्कुरा रही थी
कहाँ गई वो हवा जो पेंगें बढ़ा रही थी
वो सब्ज़ ख़ुश्बू जो बंद नाफ़े
गली गली फिर के बाँटती थी
वो हाथ थामे
नहीफ़ जिस्मों की एक लम्बी क़तार जिस में
कहीं भी कोई तड़ख़ नहीं थी
ये कौन हैं हम
जो सहमे पेड़ों
डरे परिंदों लरज़ते तारों
से बंध गए हैं
ख़ुद अपने सायों से डर गए हैं
नज़्म
बंधन
वज़ीर आग़ा