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बग़दाद | शाही शायरी
baghdad

नज़्म

बग़दाद

सलमान अंसारी

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हसन जिस शहर में
तू गीली मिट्टी से

कभी कूज़े बनाता था
तुझे इस शहर में मिट्टी नहीं

अब सर मिलेंगे
हज़ारों ख़स्ता-तन

लाशों से रिसता ख़ून
तेरे शहर की मिट्टी को

यूँ सैराब करता है
कि अब जो तू कभी

मिट्टी से खेलेगा
तो हर कूज़ा सुराही जाम-ओ-मीना

लहू के रंग के होंगे
तिरी नक़्श-ओ-निगारी

और तिरे हाथों की सन्नाई
न इन कूज़ों को बख़्शेगी वो हैरत

वो नुदरत और वो नक़्क़ाशी
जो बस तेरा ही हिस्सा थी

वो इस मिट्टी की सोंधी तेज़ ख़ुशबू
पुराने ख़ून की बदबू में मिल कर

ऐसी बदली है
तुझे महसूस होगा

तू किसी मरघट में बैठा है
तुझे दजला का वो शफ़्फ़ाफ़ पानी याद है क्या

वो जिस से तेरे कूज़ों की ज़िया थी
वो जिस से प्यास बुझती थी

तिरे सूखे बदन की
वो दजला सुर्ख़ है

मासूम बच्चों के लहू से
हसन अता यूसुफ़ की दुकाँ के सामने

कल बम फटा था
न जाने कितने कूज़ा-गर मरे

जिन के घरों में
इसी मिट्टी के प्याले हैं मगर ख़ाली

तड़पती भूक है और लब सवाली
न जाने कितने कारी-गर मरे

अब कौन गिनता है
हसन इस शहर में अब कोई मरजीना नहीं है

न दुनिया-ज़ाद, न हासिब करीमुद्दीन का घर है
अजाइब-घर हैं न वो दर्स-गाहें

कुतुब-ख़ानों में लश्कर सो रहे हैं
कोई ज़िंदा नहीं इस शहर में

बस मौत ज़िंदा है
हसन तू मुझ से वा'दा कर

कि चाहे कुछ भी हो जाए
पलट कर इस शहर में

फिर कभी वापस न आएगा