EN اردو
बाज़ दीद | शाही शायरी
baz did

नज़्म

बाज़ दीद

ज़ुबैर रिज़वी

;

वो सूरज की पहली किरन ले के अपने घरों से चले जब
तो चेहरे गुलाबों की सूरत खिले थे

जबीनों पे सज्दों की ताबिंदगी थी
लिबासों की शाइस्तगी ज़ेब-ए-तन थी

निगाहों में शौक़-ए-सफ़र की चमक
और क़दमों में थी आबशारों की मस्ती

मुझे यूँ लगा ज़िंदगी
आसमानों पे गाया हुआ गीत दोहरा रही है

सर-ए-शाम सूरज की ढलती किरन
साथ अपने लिए जब घरों को वो लौटे

तो चेहरों की लाली
लिबासों की शाइस्तगी मर चुकी थी

निगाहों में गहरी थकन थी
जो क़दमों से टकरा रही थी

मुझे यूँ लगा ज़िंदगी
फिर गुनाहों की पादाश में

आसमाँ की हदों से निकाली गई है