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बाँझ | शाही शायरी
banjh

नज़्म

बाँझ

वज़ीर आग़ा

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छतों मुंडेरों और पेड़ों पर
ढलती धूप के उजले कपड़े सूख रहे थे

बादल सुर्ख़ सी झालर वाले बाँके बादल
हँसते चहकते फूलों का इक गुलदस्ता थे

हर शय कुंदन रूप में ढल कर दमक रही थी
गालों पर सोने की डलग और आँखों में इक तेज़ चमक थी

सारा मंज़र कैफ़ के इक लम्हे में बेबस
लज़्ज़त की बाँहों में जकड़ा हुमक रहा था

और फिर दो आँखों को मिलती
काले उलझे बालों को मुख पर बिखराए

छोटे छोटे क़दम उठाती बढ़ती आई
पहली खिड़की में जब उस ने झाँका

खिड़की की दहलीज़ पे रक्खा इक नाज़ुक गुल-दान चटख़ कर टूट गया
उलझे बालों पागल आँखों वाली ने तब आगे बढ़ कर

दूसरी तीसरी और फिर गली की हर खिड़की में झाँक के देखा
गुल-दानों को ठोकर मारी

इक इक फूल को रौंद दिया
तब वो मुझ को देख के लपकी

मेरी जानिब ग़ैज़-भरी नज़रों का रेला आया
फिर जैसे कुछ शोख़ के ठिठकी

सुर्ख़ गुलाब का फूल मिरे हाथों में थमाया
और ख़ुद चिकने फ़र्श पे गिर कर टूट गई