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बाग़ी | शाही शायरी
baghi

नज़्म

बाग़ी

मख़दूम मुहिउद्दीन

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राद हूँ बर्क़ हूँ बेचैन हूँ पारा हूँ मैं
ख़ुद-प्रुस्तार, ख़ुद-आगाह ख़ुद-आरा हूँ मैं

ख़िर्मन-ए-जौर जला दे वो शरारा हूँ मैं
मेरी फ़रियाद पे अहल-ए-दुवल अंगुश्त-ब-गोश

ला, तबर ख़ून के दरिया में नहाने दे मुझे
सर-ए-पुर-नख़वत-ए-अर्बाब-ए-ज़माँ तोडूँगा

शोर-ए-नाला से दर-ए-अर्ज़-ओ-समाँ तोडूँगा
ज़ुलम-प्रवर रविश-ए-अहल-ए-जहाँ तोडूँगा

इशरत-आबाद इमारत का मकाँ तोडूँगा
तोड़ डालूँगा मैं ज़ंजीर-ए-असीरान-ए-क़फ़स

दहर को पंजा-ए-उस्रत से छुड़ाने दे मुझे
बर्क़ बन कर बुत-ए-माज़ी को गिराने दे मुझे

रस्म-ए-कोहना को तह-ए-ख़ाक मिलाने दे मुझे
तफ़रक़े मज़हब ओ मिल्लत के मिटाने दे मुझे

ख़्वाब-ए-फ़र्दा को बस अब हाल बनाने दे मुझे
आग हूँ आग हूँ हाँ एक दहकती हुई आग

आग हूँ आग बस अब आग लगाने दे मुझे