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ब-शर्त-ए-उस्तुवारी | शाही शायरी
ba-shart-e-ustuwari

नज़्म

ब-शर्त-ए-उस्तुवारी

साहिर लुधियानवी

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ख़ून-ए-जम्हूर में भीगे हुए परचम ले कर
मुझ से अफ़राद की शाही ने वफ़ा माँगी है

सुब्ह के नूर पे ता'ज़ीर लगाने के लिए
शब की संगीन सियाही ने वफ़ा माँगी है

और ये चाहा है कि मैं क़ाफ़िला-ए-आदम को
टोकने वाली निगाहों का मदद-गार बनूँ

जिस तसव्वुर से चराग़ाँ है सर-ए-जादा-ए-ज़ीस्त
उस तसव्वुर की हज़ीमत का गुनहगार बनूँ

ज़ुल्म पर्वर्दा क़वानीन के ऐवानों से
बेड़ियाँ तकती हैं ज़ंजीर सदा देती है

ताक़-ए-तादीब से इंसाफ़ के बुत घूरते हैं
मसनद-ए-अदल से शमशीर सदा देती है

लेकिन ऐ अज़्मत-ए-इंसाँ के सुनहरे ख़्वाबो
मैं किसी ताज की सतवत का परस्तार नहीं

मेरे अफ़्कार का उन्वान-ए-इरादत तुम हो
मैं तुम्हारा हूँ लुटेरों का वफ़ादार नहीं