मुझे मा'लूम है
तुम ने मुझे बचपन से पाला था
बहुत रातों को तुम जागे थे
और तुम ने मिरी आँखों में अपने ख़्वाब रखे थे
कभी जातक कथाएँ दास्तानें
और कभी तारीख़ के क़िस्से सुनाए थे
मुझे हर्फ़ों को जब पहचानना आया था
तुम ने सब सहीफ़े और वो सारी किताबें
जो तुम्हारा ज़िंदगी-भर का असासा थीं
मुझे पढ़ने को दी थीं
और वो तुम थे मुझे चारों दिशाओं में
सफ़र करना सिखाया
मैं कभी काशी कभी मथुरा
कभी मक्के मदीने घूमता रहता
कभी बग़दाद इस्तंबोल पहुँचा
और कभी मैं ने समरक़ंद-ओ-बुख़ारा में क़दम रक्खा
कभी मैं इसफ़हाँ और नज्द-ओ-कूफ़े में फिरा
जब मुद्दतों के बा'द वापस लौट कर आया तो
गौतम जा चुके थे
राम अयोध्या में नहीं थे
तुम किसी इक क़ब्र में सोए हुए थे
और मेरे साथ
गंगा रो रही थी
नज़्म
गंगा रो रही थी
ज़ुबैर रिज़वी