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ऑटोग्राफ | शाही शायरी
autograph

नज़्म

ऑटोग्राफ

मजीद अमजद

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खिलाड़ियों के ख़ुद-नविश्त दस्तख़त के वास्ते
किताबचे लिए हुए

खड़ी हैं मुंतज़िर हसीन लड़कियाँ
ढलकते आँचलों से बे-ख़बर हसीन लड़कियाँ

मुहीब फाटकों के डोलते किवाड़ चीख़ उठे
उबल पड़े उलझते बाज़ुओं चटख़ती पिस्लियों के पुर-हिरास क़ाफ़िले

गिरे बढ़े मुड़े भँवर हुजूम के
खड़ी हैं ये भी रास्ते पे इक तरफ़

बयाज़-ए-आरज़ू ब-कफ़
नज़र नज़र में ना-रसा परस्तिशों की दास्ताँ

लरज़ रहा है दम-ब-दम
कमान-ए-अबरुवाँ का ख़म

कोई जब एक नाज़-ए-बे-नियाज़ से
किताबचों पे खिंचता चला गया

हुरूफ़-ए-कज-तराश की लकीर सी
तो थम गईं लबों पे मुस्कुराहटें शरीर सी

किसी अज़ीम शख़्सियत की तमकनत
हिनाई उँगलियों में काँपते वरक़ पे झुक गई

तो ज़र-निगार पल्लुवों से झाँकती कलाइयों की तेज़ नब्ज़ रुक गई
वो बोलर एक मह-वशों के जमघटों में घिर गया

वो सफ़्हा-ए-बयाज़ पर ब-सद-ग़ुरूर किल्क-ए-गौहरीं फिरी
हसीन खिलखिलाहटों के दरमियाँ विकट गिरी

मैं अजनबी मैं बे-निशाँ
मैं पा-ब-गिल

न रिफ़अत-ए-मक़ाम है न शोहरत-ए-दवाम है
ये लौह-ए-दिल ये लौह-ए-दम

न इस पे कोई नक़्श है न इस पे कोई नाम है