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औरत | शाही शायरी
aurat

नज़्म

औरत

शौकत परदेसी

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मुजस्सम इश्वा-ओ-अंदाज़ भी है
मगर औरत जहान-ए-राज़ भी है

सितम-आराईयाँ तस्लीम लेकिन
निहायत मुख़लिस-ओ-दमसाज़ भी है

शक्त-ए-आरज़ू की बात कैसी
हुजूम-ए-आरज़ू का राज़ भी है

अगर कोताह-नज़री हो न हाइल
तो शायद मरकज़-ए-पर्वाज़ भी है

कहीं अफ़्साना-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत
कहीं रूदाद-ए-सोज़-ओ-साज़ भी है

यही तक़्दीस-ए-मर्यम ज़ब्त-ए-सीता
यही अय्यार-ओ-शाहिद-बाज़ भी है

इसी से रौनक़-ए-हर-अंजुमन भी
यही हर फ़ित्ने का आग़ाज़ भी है

यही गंजीना-ए-ज़ौक़-ए-निहानी
मशिय्यत का यही एजाज़ भी है

जहाँ है सर-ब-सज्दा इश्क़ अब तक
यही वो बारगाह-ए-नाज़ भी है

फ़ज़ा-ए-अल-जज़ाइर जिस पे क़ुर्बां
इक ऐसी पुर-असर आवाज़ भी है

ग़र्ज़ औरत जहान-ए-आब-ओ-गिल में
ज़माना भी ज़माना-साज़ भी है