जब सूरज ने जाते जाते
अश्गाबाद के नीले उफ़ुक़ से
अपने सुनहरी जाम
में ढाली
सुर्ख़ी-ए-अव्वल-ए-शाम
और ये जाम
तुम्हारे सामने रख कर
तुम से क्या कलाम
कहा प्रणाम
उट्ठो
और अपने तन की सेज से उठ कर
इक शीरीं पैग़ाम
सब्त करो इस शाम
किसी के नाम
कनार-ए-जाम
शायद तुम ये मान गईं और तुम ने
अपने लब-ए-गुलफ़म
किए इनआम
किसी के नाम
कनार-ए-जाम
या शायद
तुम अपने तन की सेज पे सज कर
थीं यूँ महव-ए-आराम
कि रस्ते तकते तकते
बुझ गई शम्-ए-जाम
अश्गाबाद के नीले उफ़ुक़ पर
ग़ारत हो गई शाम
नज़्म
अश्गाबाद की शाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़