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असहाब-ए-गिर्या | शाही शायरी
ashab-e-girya

नज़्म

असहाब-ए-गिर्या

ज़ुबैर रिज़वी

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पुरानी बात है
लेकिन ये अनहोनी सी लगती है

हुसैनाबाद सारा
ता'ज़िया-दारों की बस्ती थी

मोहर्रम के दिनों में शाम होते ही
हुसैनाबाद के मर्द-ओ-ज़न काले लिबासों में

अज़ा-ख़ानों के दालानों में
शब भर मर्सिया पढ़ते

सफ़-ए-मातम बिछाते और अपनी छातियों को लाल कर लेते
नौवीं की शब वो सब अपने घरों से आग लाते

और दहकती आग की चारों तरफ़ ईंटें बिछा देते
हज़ारों आँखें मुश्ताक़ाना इक जानिब को उठ जातीं

फ़ज़ा में गूँज सी होती
कोई ना'रा लगाता और हुसैन-इब्न-ए-अली का नाम ले कर

आग की ईंटों पे यूँ चलता हुआ आता
कि जैसे फ़र्श-ए-गुल हो या कोई सब्ज़े की चादर हो

वो फिर ना'रा लगाता दौड़ता बिजली की तेज़ी से
मुक़द्दस आयतों वाला अलम हाथों में ले लेता

कमर से अपनी कस लेता
हज़ारों लोग उस के गर्द हल्क़ा बाँध लेते

और उसे कश्फ़-ओ-करामत का ख़ज़ीना जान कर
अपने दिलों का मुद्दआ' कहते

वो पैहम आग की ईंटों पे यूँही नाचता रहता
मुरादों मिन्नतों का माजरा सुनता

मगर जब आग की ईंटों की सुर्ख़ी माँद हो जाती
तो सारे लोग हल्क़ा तोड़ देते और मुक़द्दस आयतों वाला अलम

इस शख़्स के हाथों से ले लेते
अज़ा-ख़ानों के दालानों में वापस लौट कर आते

सफ़-ए-मातम बिछाते
और अपनी छातियों को लाल कर लेते