उसे दुख के साथ ब्याहा गया
कि जब आँख खुली तो सर पर सूरज जलती नाँद में धूल
इसे धूप के साथ ब्याहा गया
कि जो शाम पड़े से दिन गुज़रे तक सोती थी
उसे नींद के साथ ब्याहा गया
कि जो आज के ख़्वाब से कल के ख़्वाब का सौदा करती थी
उसे ब्याह के साथ ब्याहा गया
कि जो कष्ट उठाती धूप में बैठी साए से बातें करती थी
उसे साए के साथ ब्याहा गया
मल्लाहों ने उस की आँखों की तारीफ़ नहीं की
बच्चे उस को देख के रुके नहीं
लड़कियाँ उस के लिबास पे चौकीं नहीं
उसे यूँ दफ़नाया जैसे मछलियाँ जाल से जाल में डालते हैं
उसे यूँ नहलाया जैसे बारिश आबी पौदों को नहला कर ख़ुश होती है
उसे शाम के साथ विदाअ' किया
जब चाँद घने बादल में छुपता फिरता था
और आँखें चुनने वाली मछलियाँ चुनी गई थीं
और नाव ने नाव के साथ गुनाह किया था
मिट्टी पानी के बेटे ये सब कुछ देख चुके होते तो दहशत से पहले मर जाते
ये दरिया दिन से दरवाज़े पर रुका हुआ है
दिन जो आगाही है
सुब्ह को बिस्तर तह करने
धूप में तोशक फैलाने
कपड़े बिसतर-बंद सुखाने
रात की बत्ती गुल करने
ज़ंजीर हिला कर देखने की आगाही
ये दरिया दिन से दरवाज़े पर रुका हुआ है
ये दरिया रात को अंदर दर आएगा
रात अजब पछतावा है
अपने दूसरे की पहचान का
दिन को घर आने
इक नस्ल का क़र्ज़ उतारने
काँटे चुभ कर मर जाने का पछतावा
ये रात ये दिन क्या ताबड़-तोड़ गुज़रते हैं
जब ऊपर पानी चलता है
और नीचे मिट्टी सोती है
और कोई मन में पुकारता है
मौला मुझ को बादल कर दे
और इक पिछली रात अचानक चीख़ किसी को आ लेती है
और घर का घर उठ जाता है
और दिन के बहलावे में रात बिताई जाती है
इस मौसम पानी आगे आएगा तुम घर में मत सोना
जब छत की खच्ची झुक जाए
और पानी छल-छल दिखता हो
तब बाहर सोना अच्छा रहता है
फिर मौसम अपने मौसम हो जाते हैं
और रुत कन्या पाज़ेब उतार के फेंकती है
फिर कोई किसी से ये नहीं कहता
मौला मुझ को बादल कर दे
या सोती मिट्टी
या चलता पानी
फिर कोई किसी से कुछ नहीं कहता
फिर सब अपनी सुनते हैं
फिर बादल बारिश रात ज़मीं सब इक चादर में सोते हैं
और इक चादर में चलते हैं
और होते हैं और नहीं होते हैं
और लफ़्ज़ का वाहिद सरमाया ख़ामोशी है
और जो लफ़्ज़ नहीं सुनते हैं ख़ामोशी भी नहीं सुनते हैं
जब पहलू-दार सुतून से टेक लगाए लड़की सोती है
और हौज़ के पास खड़े शहज़ादे
और उन की बांदियाँ
और सारा शहर
इस आन कहीं चुपके से उन में हो जाना
और नहीं कहना मैं आया हूँ
अच्छा है
आगाही और पछतावे और ऐसी मौत से जो यकसर ना-मा'लूम में है
नज़्म
अपने नाम एक नज़्म
मोहम्मद अनवर ख़ालिद