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अपना अपना रंग | शाही शायरी
apna apna rang

नज़्म

अपना अपना रंग

एजाज़ फ़ारूक़ी

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तू है इक ताँबे का थाल
जो सूरज की गर्मी में सारा साल तपे

कोई हल्का नीला बादल जब उस पर बूँदें बरसाए
एक छनाका हो और बूँदें बादल को उड़ जाएँ

ताँबा जलता रहे
वो है इक बिजली का तार

जिस के अंदर तेज़ और आतिशनाक इक बर्क़ी-रौ दौड़े
जो भी उस के पास से गुज़रे

उस की जानिब खींचता जाए
उस के साथ चिमट के मौत के झूले झूले

बर्क़ी-रौ वैसी ही सुरअत और तेज़ी से दौड़ती जाए
मैं हों बर्ग-ए-शजर

सूरज चमके मैं उस की किरनों को अपने रूप में धारूँ
बादल बरसे मैं उस की बूँदें अपनी रग रग में उतारूँ

बाद चले मैं उस की लहरों को नग़्मों में ढालूँ
और ख़िज़ाँ आए तो उस के मुँह में अपना रस टपका कर पेड़ से उतरूँ

धरती में मुदग़म हो जाऊँ
धरती जब मुझ को उगले तो पौदा बन कर फूटूँ